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सुरवी मजूमदार

भारतीय शिक्षित समाज की विडंबना

कहते हैं कि श्रम की कोई सीमा नहीे होती। ज्ञान ही मानव की एक ऐसी सम्पत्ति है जिसे वह जितना लुटाता है, वह उतना ही बढ़ता जाता है। हमारे शास्त्रों में लिखा है - “स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान सर्वत्र पूज्यते।” अर्थात् किसी राजा का मान केवल उसके देश तक सीमित है, परंतु एक विद्वान का सम्मान पूरी दुनिया करती है।

किन्तु आज के भारत ने मानों विद्या को अपने स्वार्थ के लिए तोड़-मरोड़कर उसका उपयोग करना आरंभ कर दिया है। आज के भारतीय समाज में शिक्षा के क्षेत्र में केवल भ्रष्टाचार और पाखंड ही रह गया है।

अध्यापन जैसे महान कार्य को अधिकतर लोग केवल एक आरामदायक सरकारी नौकरी के रूप में पाना चाहते हैं,, जिसके कारण शिक्षा विभाग केवल एक घूसखोरी और सिफ़ारिशों का विभाग बन चुका है। आजकल सरकारी अध्यापक की नौकरी मानो बेची जा रही हो और जो बेईमान, धनवान भले ही इस कार्यभार के लिए पूरी तरह असमर्थ हो, वही इसे खरीद लेता है।

ऐसा नहीं है कि अध्यापकों में ईमानदारी का उदाहरण लुप्त होता चुका है, परंतु जो ईमानदार है उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। सरकारी विद्यालयों में चाहे कितनी भी आधुनिक सुविधाएँ मुहैया करवा दी गई हैं परंतु एक गुरू ही देश के भविष्य की नींव बनाता है। ऐसे में यदि गुरू ही अयोग्य हो तो भारत का भविष्य उजाले में है या अंधेरे में?.... यह कह पाना मुश्किल है।

विद्या के क्षेत्र में भारत के राजनेताओं की भी बड़ी भूमिका है। आधुनिक व्यवस्थाओं की यदि बात करें तो वह भी सरकारी विद्यालयों तक ही सीमित है। राजकीय सहायता प्राप्त शैक्षिक संस्थाएँ केवल नाम मात्र के लिए ही 'राजकीय सहायता प्राप्त' हैं।जिस प्रकार सरकारी विद्यालयों में सरकार का आर्थिक सहयोग है, वह न ही राजकीय सहायता प्राप्त विद्यालयों में दी जाती है , न ही निजी विद्यालयों में।

भारत में अब भी क़रीब 23 प्रतिशत जनसंख्या निरक्षर और अशिक्षित है। इसका मुख्य कारण शिक्षा विभाग में भ्रष्टाचार, राजनेताओं का स्वार्थ और शिक्षक का कार्य के प्रति छोटा नज़रिया है।

अन्य रोज़गारों की तुलना में शिक्षक के कार्य को न ही सम्मान मिलता है, न सहयोग। आख़िर, सरकारी, राजकीय सहायता प्राप्त और निजी विद्यालयों में इतना भेदभाव क्यों..? लोग कहते हैं कि निजी विद्यालयों में अधिक फ़ीस ली जाती है, परंतु यदि उन्हें सरकार की ओर से प्रोत्साहन राशि मिलती तो शायद उन्हें ऐसा करने की आवश्यकता ही न होती।

चुनाव के समय ही बोर्ड की परीक्षा निःशुल्क क्यों की गई? सभी विद्यालय के शिक्षकों को एकसमान सम्मान, प्रोत्साहन राशि और सुविधाएँ क्यों नहीं प्राप्त हो सकती ? अध्यापकों से चुनाव के समय काम क्यों कराए जाते हैं? क्यों हर विद्यालय में समान सरकारी, आर्थिक और आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध कराई जातीं ?

शायद इन सवालों के उत्तर न मिलने के कारण ही भारतीय शिक्षा व्यवस्था आज अंधकार में है और सही मायनों में शिक्षा किसी को प्राप्त नहीं हो पा रही।

हमें यह समझना होगा कि जब तक देश का शिक्षा के प्रति नज़रिया नहीं बदलता तब तक हमारा समाज उन्नति नहीं कर सकता।

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