भारत एक विशाल देश है जहाँ विभिन्न धर्म,जाति व वेश - भूषा धारण करने वाले लोग निवास करते है। दूसरे शब्दों में, अनेकता में एकता हमारी पहचान है और हमारा गौरव है परंतु अनेकता अनेक समस्याओं की जड़ भी है।
विभिन्न धर्मों व संप्रदायों के लोगों की विचारधारा भी विभिन्न होती हैं। देश में भाषावाद, संप्रदायवाद या जातिवाद, इन्हीं विभिन्नताओं का दुष्परिणम है। इसके चलते आज देश के लगभग सभी राज्यों में दंगे - फसाद, मारकाट, लूट-खसोट आदि के समाचार प्रायः सुनने व पढ़ने को मिलते है। नारी के प्रति अत्याचार, दुराचार तथा बलात्कार का प्रयास हमारे समाज की एक शर्मनाक समस्या है। प्राचीन काल में जहाँ नारी को देवी समान माना जाता था, आज उसी नारी की भावनाओं को दबाकर रखा जाता है। अंधविश्वास रूढ़िवादिता जैसी सामाजिक बुराई देश की प्रगति को पीछे धकेल देती है। अंधविश्वास व रूढ़िवादिता हमारे नवयुवको को अपनी असफलताओं में अपनी कमियों को ढूँढने के बजाय वे इसे भाग्य की परिणति का रूप दे देते है। भ्रष्टाचार भी हमारे देश में एक जटिल समस्या का रूप ले चुका है। सामान्य कर्मचारी से लेकर ऊँचे-ऊँचे पदों पर आसीन अधिकारी तक सभी भ्रष्टाचार के पर्याय बन गए हैं। जिस देश के नेतागण भ्रष्टाचार में डूबे हुए होंगे तो सामान्य व्यक्ति उससे परे कब तक रह सकता है। यह भ्रष्टाचार का ही परिणाम है कि देश में महँगाई तथा कालाबज़ारी के ज़हर का स्वच्छंद रूप से विस्तार हो रहा है।
देश में अशिक्षा और निर्धनता हमारी प्रगति के मार्ग की सबसे बड़ी रुकावट है। जब तक समाज में अशिक्षा और निर्धनता व्याप्त है, कोई भी देश वास्तविक रूप में विकास नहीं कर पाएगा। इन समस्याओं का हल ढ़ूँढ़ना केवल सरकार का ही दायित्व नहीं है अपितु यह समाज के सभी नागरिकों का उत्तरदायित्व है। देश के युवाओं व भावी पीढ़ी पर यह जिम्मेदारी और भी अधिक बनती है।
कवि तुलसीदास जी के अनुसार,
ढोल, गँवार, सूद, पशु, नारी ।
सकल ताड़ना के अधिकारी ।।
इससे पता चलता है कि तुलसीदास ने अपने युग की मान्यताओं को लिपिबद्ध किया है। समाज में स्त्रियों एवं शूद्रों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। दहेज प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियाँ आज भी नारी को कष्टमय जीवन जीने के लिए बाध्य करती हैं।
भारत में प्रायः पैतृक उत्तराधिकार का नियम होने के कारण विवाहित स्त्री और उसकी संतान भी पति की जाति की मानी जाने लगी। इस प्रकार शूद्रों की संख्या बढ़ती गई। स्वतंत्रता संग्राम के समय से हरिजनों की दशा सुधारने के प्रयास शुरू हुए। स्वतंत्र भारत के संविधान में भी इस संबंध में काफी कुछ वर्णित हैं।
संविधान में छुआछूत तथा बाल शोषण को दंडनीय अपराध घोषित किया गया है। इन बुराइयों से निजात दिलाने के लिए दलित तथा दबे-कुचलों के लिए आरक्षण की व्यवस्या भी की गई।
सामाजिक भेदभाव को मिटाने के लिए समाज के हर वर्ग को उन्नति करने का समान अवसर मिलना चाहिए। सबकी शिक्षा - व्यवस्था समान स्थर पर होनी चाहिए। पिछड़े वर की आर्थिक दशा को सुधारने के उपाय होने चाहिए।
जाति- भेद मिटाने के लिए अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित किया जा सकता है। नारी समाज को शिक्षित करके स्वावलंबी बनाने से दहेज प्रथा को रोका जा सकता है। भारतीय जीवन की मूल प्रवृत्ति भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों के समन्वय पर आधारित है। यही कल्याणकारी मार्ग भी है। जो राष्ट्र अपनी मान्यताओं पर ध्यान न देकर दूसरों का अंधानुकरण करता है, वह कभी अपनी सामाजिक समस्याओं का निराकरण नहीं कर सकता । आवश्यकता है कि देश के सभी युवा, समाज में व्याप्त इन बुराइयों का स्वयं विरोध करे तथा इन्हें रोकने का हर सम्भव प्रयास करें। यदि यह प्रयास पूरे मन से होगा तो इन सामाजिक बुराइयों को अवश्य ही जड़ से उखाड़ फेंका जा सकता है।
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